Friday, July 29, 2011

सुरक्षित देश की सीमाओं में असुरक्षित बचपन !


क्या आप जानते हैं कि भारत के ग्रामीण इलाकों में तीन साल से कम उम्र के 40% बच्चों का वजन औसत से कम है, जबकि 45ø का विकास सही तरीके से नहीं हो पाता है। बच्चों को पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराने के मामले में भारत अपने पड़ोसी देश बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है। बच्चों को पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराने के मामले में 51 देशों के बीच भारत का स्थान 22वां है। सरकारी आकड़ों के लिहाज से देश की 37.2% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है, जो यह दर्शाती है कि देश में गरीबी बहुत तेजी से बढ़ रही है यानि जितना हम सोचते हैं उससे कहीं ज्यादा बच्चे गरीबी में जीने को मजबूर हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ख्ॅण्भ्ण्व्ण्, के आंकड़ों के मुताबिक दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से 49% भारत में हैं। अर्थव्यवस्था से जुड़े तमाम बड़े बड़े दावों के बावजूद भारत में बच्चों की कुपोषण से होने वाली मौतें बढ़ती ही जा रही हैं। देश में एक सेकेण्ड के भीतर 5 साल के नीचे का एक बच्चा कुपोषण के कब्जे में आ जाता है।
इसी तरह देश के 3.5 करोड़ बच्चे बेघर हैं जिनमें से 35000 बच्चों को ही आश्रय मिल सके हैं। इन आश्रयों में से भी बहुत सारे गैर सरकारी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे हैं। मानवाधिकार संगठन के मुताबिक फुटपाथ पर रात बिताने वाले करीब 1 करोड़ बच्चों में से ज्यादातर को यौन-शोषण और सामूहिक हिंसा झेलनी पड़ती हैं। दिल्ली में जून 2008 से लेकर जनवरी 2009 तक 2210 बच्चे लापता हुए हैं। दिल्ली में एक दिन में औसतन 17 बच्चे गायब हो रहे हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दुनिया में हर साल 72 लाख बच्चे गुलामी का शिकार हो रहे हैं। इनमें से एक तिहाई दक्षिण एशियाई देशों के होते हैं। गैर-सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर साल 45 हजार बच्चे गायब हो रहे हैं। अध्ययन कहते हैं कि गायब हुए बच्चों से मजदूरी कराई जाती है, या उन्हें सेक्स वर्कर बना दिया जाता है।
हालांकि केंद्र सरकार उन राज्य सरकारों के प्रति नाराजगी जताती रही है है जो केंद्र की ‘समेकित बाल संरक्षण योजना’ पर हस्ताक्षर तो चुके हैं मगर उसके बाद से अपने यहां बाल संरक्षण आयोग का गठन तक नहीं कर सके हैं। कुपोषण, असुरक्षा जैसी तमाम समस्याओं की मार झेलते भारतीय बच्चों की एक बड़ी समस्या अनेक कारणों से की जाने वाली मजदूरी भी है। बाल अधिकारों से जुड़ी अनेक अंतरराष्ट्रीय संधियों का हस्ताक्षरकर्ता होने के बावजूद भारत ‘बाल मजदूरों का गढ़’ बन चुका है। पूरी दुनिया में 24.6 करोड़ बाल मजदूर हैं, जबकि केंद्र सरकार के अनुसार देश में 1.7 करोड़ बाल मजदूर हैं जिनमें से 12 लाख खतरनाक उद्योगों में काम करते हैं। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के बाल मजदूरी से जुड़े आकड़ों के मुताबिक सेक्स इंडस्ट्री में खासतौर से लड़कियों की तस्करी विभिन्न यौन गतिविधियों के लिए हो रही है। इसी तरह घरेलू मजदूरी में भी लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा होती है।
तस्करी और लापता बच्चों के बीच गहरे रिश्ते का खुलासा एनएचआरसी की रिसर्च रिपोर्ट ;2004द्ध भी करती है जिसमें कहा गया है कि भारत में हर साल 30 हजार से ज्यादा बच्चों के लापता होने के मामले दर्ज होते हैं, इनमें से एक-तिहाई का पता नहीं चलता है। दक्षिण एशिया में दुनिया के किसी अन्य हिस्से के मुकाबले सर्वाधिक बाल-विवाह भारत में होते हैं। भारत में 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 44.5% ;करीब आधीद्ध औरतें ऐसी हैं जिनकी शादियां 18 साल के पहले हुईं हैं। इनमें 20 से 24 साल की शादीशुदा औरतों में से 22% ;करीब एक चौथाईद्ध औरतें ऐसी हैं जो 18 साल के पहले मां बनीं हैं। इन कम उम्र की लड़कियों से 73% ;सबसे ज्यादाद्ध बच्चे पैदा हुए हैं। फिलहाल इन बच्चों में 67% ;आधे से बहुत ज्यादाद्ध कुपोषण के शिकार हैं। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक बाल-विवाह बच्चियों का जीवन बर्बाद कर रहा है। देश में बच्चों का लिंग अनुपात 976ः1000 है, जो कुल लिंग अनुपात 992ः1000 के मुकाबले बहुत कम है।
शिक्षा के लिहाज से तो बच्चों की हालात कुछ ज्यादा ही पतली है। देश की 40% बस्तियों में तो स्कूल ही नहीं हैं। 48% बच्चे प्राथमिक स्कूलों से दूर हैं और 6 से 14 साल तक की कुल लड़कियों में से 50% लड़कियां तो स्कूल से ड्राप-आऊट हो जाती हैं। इन सबके बाबजूद पिछले बजट में बच्चों के हकों से जुड़े कई शब्दों से लेकर ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘मिड डे मिल’ जैसे योजनाओं को अपेक्षित जगह नहीं दी गई। कुल बजट में 25% की बढ़ोतरी तो की गई है मगर बच्चों की शिक्षा पर महज 10% की ही बढ़ोतरी हुई है यानी आमतौर पर बढ़ोतरी दर में से बच्चों की शिक्षा में 15% की कमी हुई है। जहां बाल-कल्याण की विभिन्न योजनाएं असफल होती दिख रही हैं, वहीं बच्चों के कल्याण के लिए बजट ;2009-10द्ध में राशि का प्रावधान अपेक्षित अनुपात में घोषित नहीं किया जाता है। जरूरतमंद बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा को अनदेखा किया गया है। अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस में कुल बजट का 6.7% हिस्सा सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च किया जाता है, मगर भारत में कुल बजट का मात्र 3% शिक्षा और 1% स्वास्थ्य पर खर्च होता है। अगर भारत सरकार यह दावा करती है कि वह बाल कल्याण और सुरक्षा के लिए प्रयासरत है तो उसे इस सवाल का जवाब भी देना होगा कि- आखिर स्वास्थ्य की दृष्टि से भारत अपने से भी गरीब कहे जाने वाले पिछड़े देशों से भी पीछे क्यों खड़ा हुआ है?
- शिरीष खरे
- द्वाराः ‘चाइल्ड राइट्स एंड यू’, 189/ए, आनंद एस्टेट, साने गुरूजी मार्ग, चिंकपोकली स्टेशन के पासद्ध, मुम्बई-400011

क्या कभी बंद हो सकेगा - शिक्षक तबादला उद्योग ?


पिछले काफी वर्षो से हम सभी देखते आ रहे हैं कि एक शैक्षणिक सत्र के समाप्त होते ही प्रदेश के सभी शिक्षकों में अपने-अपने तबादलों को लेकर एक अंतहीन दौड़-धूप, भागम-भाग शुरू हो जाती है। कोई किसी सरकारी अधिकारी के यहां, कोई बिचौलिये के यहां, कोई छुटभैये राजनेता के यहां, तो कोई तगड़ी पहुंच, सिफारिश या पैसों के दम पर बड़े-बड़े नेताआंे के यहां, मंत्रियों व विधायकों के यहां - यानि, सब अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार चक्कर-दर-चक्कर लगाना शुरू कर देते हैं। कुछ खुश किस्मत व चालाक लोग अपने इस प्रयास में सफल होकर अपना अथवा अपने चहेतों का तबादला इच्छित स्थान पर करवा पाने में सफल हो जाते हैं, तो बाकी अपनी किस्मत को कोसते हुए अगले शैक्षणिक सत्र की प्रतीक्षा में रो-धोकर अपनी सारी मजबूरियों को सहते हुए चुपचाप अपने घर आकर बैठ जाते हैं। ‘तबादला उद्योग’ का ये तमाशा, केवल इस साल ही नहीं, हर साल और हर हालत मंे होता आ रहा है। चाहे सरकार किसी भी पार्टी की हो।
तबादलों के इस तमाशे ने तो अब लगभग एक सुनियोजित उद्योग की शक्ल अख्तियार ही कर ली है और यह उद्योग हर साल ही गुजरे साल से ज्यादा फलता-फूलता दिखाई देता है। इस तथ्य से हर शिक्षक, आम आदमी, राजनेता, अधिकारी व मीडिया सभी भली-भांति परिचित बने हुए हैं, लेकिन सब मौन है - आखिर क्यों? एक प्रजातांत्रिक देश/प्रदेश में आखिर हर कार्य किसी नियम, कायदे, कानून, नीति, परिपाटी या परम्परा से ही परिचालित एवं बाधित होता है - तो फिर शिक्षकों का तबादला ही इन बंधनों से मुक्त क्यों है? इसे ही केवल राजनेताओं की ‘डिजायर’ पर और उनके रहमों-करम पर ही क्यों छोड़ दिया गया है? यह ज्वलन्त सवाल हर बु(िजीवी व्यक्ति, संस्था, प्रशासन, मीडिया आदि सभी के लिए ‘विचारणीय सवाल’ नहीं है क्या? प्रदेश के प्रमुख कहे जाने वाले समाचार पत्र दैनिक भास्कर के दिनांक 28 अगस्त 2010 के अंक में इस ‘शिक्षक तबादला’ के संबंध में छपा यह समाचार- ‘अधिकारियों को 7 हजार शिक्षकों की सूची दे दी गई है जिसमें केवल डिजायर वाले लोगों के ही नाम है’, शिक्षकों के तबादला उद्योग की ही पुष्टि करता है। डिजायर नहीं तो तबादला नहीं, ऐसा क्यों? - यह एक याक्षिक प्रश्न है।
सारी उम्र प्रशासनिक कार्यालय में बिताने के पश्चात्, मैं अपने अनुभव के आधार पर पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूं कि कुछ प्रदेशों में विशेषकर केन्द्र में रेलवे विभाग में तबादलों के लिए ठोस नीति-निर्देश बने हुए हैं, जिनका सार यह है - ;1द्ध हर कार्यालय में तबादले के लिए एक ‘नेम नोटिंग’ रजिस्टर रखा हुआ है जिसमें किसी भी इच्छुक कर्मचारी का तबादले का आवेदन आते ही उसका नाम नोट कर लिया जाता है और उसका दर्ज क्रमांक उस कर्मचारी को लिखित रूप में दे दिया जाता है। इस दर्ज क्रमांक का कोई भी अधिकारी, राजनेता उल्लंघन नहीं कर सकता। इच्छित रिक्त स्थान होने पर, बिना किसी डिजायर व सिफारिश के, उस आवेदित व दर्ज नाम कर्मचारी का स्थानान्तरण कर दिया जाता है। तो- फिर राजस्थान में ऐसा क्यांे नहीं हो सकता? ;2द्ध पारस्परिक तबादले ;डनजनंस म्गबींदहमद्ध में भी एक ही ग्रेड में कार्यरत दो कर्मचारियों की आपसी सहमति और उनका सेवा रिकॉर्ड ही मुख्य आधार होता है, इसमें भी कोई डिजायर या सिफारिश का आधार नहीं होता है। ;3द्ध पदौन्नति/पदावनति या कैडर में कमी होने पर भी तबादले किए जाते हैं। पर वो भी केवल वरिष्ठता के आधार पर, न कि किसी की डिजायर या सिफारिश पर। ;4द्ध जहां तक प्रशासनिक हित में तबादले करने का प्रश्न है तो उसके लिए कोई नियम/कायदा या डिजायर/सिफारिश नहीं होती, बल्कि प्रशासनिक हित ही सर्वोपरि होता है। लेकिन, इसका लिखिल कारण स्थानान्तरण करने वाले अधिकारी को उस कर्मचारी की फाइल पर अपने हस्ताक्षर सहित स्पष्ट रूप से लिखना होता है।
इसलिए, ऐसी ही कोई नीति या इससे मिलते-जुलते प्रादेशिक हित को ध्यान मंे रखते हुए पूरी ईमानदारी व पारदर्शिता से नीति निर्धारित कर लागू की जा सकती है। ऐसा करना प्रशासन के हित में ही होगा। जबकि, केवल डिजायर व सिफारिश के आधार पर स्थानान्तरित हुआ कर्मचारी केवल अपने राजनीतिक आका के प्रति ही समर्पित होगा, प्रशासन व कानून के प्रति कदापि नहीं। सरकारें तो बदलती रहती है लेकिन कर्मचारी तो वही रहते हैं, इसलिए स्थानान्तरण में इस डिजायर व सिफारिश वाली ‘कु-नीति’ को बदलकर ‘सु-नीति’ का निर्धारिण करना ही श्रेयस्कर होगा। वर्ना, सरकारी ढांचा तो दिन-प्रतिदिन बिगड़ ही रहा है, जो आने वाले समय में ‘आत्मघाती’ ही साबित होगा - समूची व्यवस्था के लिये।
- गिरधारी लाल वर्मा -
- ‘वर्मा निवास’, पूनम कॉलोनी, कोटा जंक्शन - 2 (राज.)

फिर भी आसां नहीं,ईमान को हटा देना!

Dr. Amar Singh

‘‘पीछे बंधे हैं हाथ, मगर शर्त है सफ़र। किससे कहूं पांव के कांटें निकाल दे।।’’ चलना भी है और पांव में कांटें भी लग रहे हैं, पांव में कांटें लगे थे, फिर भी हाथ बंधे थे। पार्टी ने यह तो बहुत बाद मंे जाना कि जिन पांवों में लहू बह रहा है वे दिखने में तो गहलोत के हैं, मगर वास्तव में वे जनअनुभूतियांे के हैं। यह आदमी तो कांटांे पर भी चलने को राजी है, मगर खून तो हमारा बह रहा है। हमंे याद है कि डेढ़ साल पहले पिछले चुनाव में पार्टी ‘खून की कमी’ महसूस कर रही थी, तब गहलोत ने अपना खून चढ़ाकर पार्टी को जिता लिया। फिर इसमें भी देर नहीं की और कांटें निकालना व पांवों पर मरहम लगाना आरम्भ कर दिया। हां, तब बात अलग थी क्योंकि तब ‘सत्ता सुन्दरी’ दूर खड़ी मुस्करा रही थी, वरण और परण की कल्पना भी परवान नहीं चढ़ पा रही थी - सो न कांटें इतने अधिक थे और न ही इतने गहरे तक घुसे थे। मगर सत्ता पंख धारण के बाद इस बार तो कांटें नहीं भाले चुभे हैं और रक्त के परनाले से चल रहे हैं।
हमारे यहां राजनीति करने में पिटना एक अलग चाल, चरित्र और चेहरे वाली पार्टी की तो विशेष पहचान बन चुकी है। नेताआंे को जहां चाहो देखो। शतरंज खेलेंगे तो पैदल से पिटेंगे और ताश खेलेंगे तो जोकर ही बेगम को उड़ा ले जायेगा। सि(ांत तोड़कर सि(ांत पर अड़े रहेंगे और आसमान में उड़ेंगे मगर जमीन पर खड़े रहेेंगे। इस अदा पर लोग फिदा तो होते हैं मगर हंसने के लिये। जो बार-बार हंसी उड़वाता है, उसे कोई गंभीरता से नहीं लेता। इससे जुड़े नेताओं को बड़ी देर से मालूम हुआ कि लोग उन्हें गंभीर नहीं मान रहे, उनका वजन घट रहा है, छवि धूमिल हो रही हैऋ तो वे चिंतित हुए और नजर दौड़ाई तो पाया कि राजस्थान में भी कई नेता गुल खिला रहे हैं, गुलगुले खा रहे हैं और पार्टी की इज्जत को टप्पा खिला रहे हैं। समझ से परे हैं कि- प्रदेश के बौने कद्दावर नेता कुछ करते क्यों नहीं? वहां उन्हें कोई पूछता नहीं, इसलिए कि यहां कुण्डली मारकर बैठने वालों का विस्तार वहां की बाम्बी तक भी है। बस, बाहर से बीन बजाते रहो, लेकिन बाम्बी में हाथ डालने का हौसला लाये कहां से?
ऊहापोह की इस स्थिति में इनको मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, भ्रष्ट आचरण और कई हलकों के माफियाओं को, छाती पर रखे पत्थर की तरह लग रहे हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। पहले तो ‘सबै भूमि गोपाल की’’ की गोलमाल से चराई जारी थी। अब ‘गोपाल’ आ गया तो अवैध चराई पर बंदिश लग गई। ग्वाल-बाल गायें चराते तो ठीक था, लेकिन यहां तो कंस के वंशज हाथी चराने लगे थे तथा गायें और ग्वाले बाहर कर दिये गये थे। ऐसे में सभी सफेद हाथियों से रीझते रहे। मगर अब तो देश की भौगोलिक दृष्टि से इस सबसे बड़े राज्य की बागडोर एक ऐसे ‘गोपाल’ के हाथ में आ गई, जो केवल बांसुरी ही नहीं डमरू भी बजा देता है और नचा भी देता है। वह गोकुल के गरीब ग्वालों और गोपियों ;आमजनद्ध के साथ आत्मीयता का लास्य नृत्य कर सकता है तो मथुरा के मठाधीशों को तांडव भी दिखा भी सकता है।
जाहिर है कि जिनका ज़्ामीर बिका हुआ था और जो राज्य के जर-जमीन पर कालिया नाग की तरह फन फैलाये हुए थेऋ लेकिन जब गोपाल ने उन्हें नाथ दिया और जंजीरों की खनखनाहट सुना दी, तो नाग तो फुफकारेंगे ही और मौका मिला तो डसेंगे भी। इसलिए मौके की नजाकत देखकर शायद वे अभी अपने ‘विषकोष’ को तैयार कर रहे होंगे। वैसे काले धन वालों का धन ही विष होता है जिससे वे कई गौरों को भी नीला कर देते हैं। जाहिर है कि वे धनरूपी विष को तैयार रखेंगे, जो अभी फुफकारेंगे और मौका मिला तो डसेंगे। असर होगा या नहीं, यह तो भविष्य ही बतायेगा मगर ‘कालिया नाग’ अपनी कोशिश से बाज नहीं आयेगा - यह तय है। वैसे मुख्यमंत्री को यह सब पता भी है, जिसने ‘कालिया नाग’ द्वारा समय-समय पर किये गये ‘विष वमन’ को एक ही झटके में धो डाला। कोई स्थितिप्रज्ञ हो तो भी मौन की साधना टूट जाती है और विषधरों की पोल खोलनी पड़ती है। टुच्चे लांछनों की पोटली बनाकर और इकट्ठा किये गये काले धन का मुंह खोलकर उन्हें हटाने की पुरजोर कोशिश हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
कौव्वे कामना करते ही हैं कि कोई मरे और उन्हें आहार मिले। मगर कौव्वे के शाप से कोई मर रहा है या ओछी हरकतों से कोई जन निर्वाचित अपने पद से हटता है क्या? जनता की सेवा की लगन में मगन किसी ‘जननायक’ के पास क्या कोई फटक सकता है? ये जो धनपति, बाहुपति या भगवान से सीधे बात करने वाले होते हैं, वे राणा की तरह मीरा के लिए ‘विष का प्याला’ रखते ही है। लेकिन, लगन से मगन रहने वाली मीरायें ये विष प्याला पीकर फेंक देती हैं और विष असरहीन होकर रह जाता है। समुद्र मंथन होता है तो विष भी निकलता है जिसे कोई विष्णु नहीं, शिव अर्थात् कल्याण करने वाला ही पीता है और वहीं ‘नीलकंठ’ कहलाता है। आखिर- जो लोकहित में स्वयं के अहित की परवाह किये बिना ही, लोकहित का ध्यान करता है और लोकमंगल के लिये तप करता है, उस पर विष क्या असर करेगा? ‘जननायक’ को तो विष पीना ही पड़ेगा और अपने दम-खम से उसके प्रभाव को खत्म भी करना पड़ेगा।
आप जब माफियाओं और लपकों का मानमर्दन करेेंगे तो वे गर्दन झुकाकर थोड़े ही बैठेंगे? बंधे हैं तब तक सधे हैं और वे उनकी छाती पर पत्थर की तरह धरे हैं। छाती पर रखा पत्थर हटाने की कौन कोशिश नहीं करता? मगर ईमान के पत्थर को छाती से हटा देना आसान नहीं होता। इसीलिए कहा भी है- ‘‘माना पत्थर की तरह रखा है सीने पर वह / फिर भी आसां नहीं, ईमान को हटा देना।’’ मुख्यमंत्री गहलोत की कार्यशैली भी भारतीय मनीषा के महा उद्घोष ‘न दैन्यम् न पलायन’ से प्रेरित है और जिसने उपनिषद् के महामंत्र ‘चरैवेति-चरैवेति’ को अंगीकार किया है, इसीलिये वह कर्मरत और निर्भय है। कन्याओं के सौभाग्य के सहयोगी और जनति के मातृभाव को पूजित बनाने का पुण्य कर्म करने वाले, दरिद्र के दुख को हरने वाले, असहायों के सहाय वाले तथा जरासंध से दो-दो हाथ करने की कामना रखने वाला व्यक्ति ही ‘ड्डष्णमय’ होता है। समय और युगों की दृष्टि से केवल संदर्भ बदलते हैं, लेकिन व्यक्ति का कर्म-धर्म और ध्येय ड्डष्णमय हो तो गन्तव्य मिलता ही है।
बस, ड्डष्ण की भक्ति के साथ, ड्डष्ण की युक्ति को भी जानना होता है। कंस को बल से, तो जरासंध को बु(ि से जीता जाता है। ड्डष्ण को भीम भी चाहिए और जरासंध भी। संहार के लिए ही नहीं, पूर्णावतार होने के लिए भी। माना जाता है कि ईश्वर हर व्यक्ति को विशेष भूमिका देकर भेजता है।
अतः जिसे दरिद्र की तकदीर बदलने की तदबीर के लिए भेजा है, वह यदि ईमानदारी से अपना कर्म कर रहा है तो कुबेर के कुचक्र करके भी उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। क्योंकि चक्रधारी ड्डष्ण उसके पीछे खड़ा होता है। चक्र ही ‘सुदर्शन’ होता है, देखने में भी और व्यवहार में भी - यह हमें स्वीकार है, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के संदर्भ में भी।
- डॉ. अमरसिंह राठौड़,
निदेशक, सूचना एवं जनसम्पर्क, राजस्थान, जयपुर
साभारः दैनिक राष्ट्रदूत (2 सितम्बर 2010)

Thursday, October 28, 2010

लेखकों के विरोध की सार्थकता पर उठता सवालिया निशान ?

महात्मा गांधी अन्तर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय के महिला लेखिकाओं के बारे में दिये गये आपत्तिजनक बयान और उसे ‘नया ज्ञानोदय’ में प्रमुखता के साथ छापने पर संपादक रवीन्द्र कालिया को लेकर उठे विवाद का अब प्रायः अंत हो गया है। आश्चर्य है कि हिन्दी के सैकड़ों छोटे-बड़े लेखकों द्वारा इन दोनों के विरूद्ध कटु आक्रोश प्रकट करने के बावजूद यह प्रतिरोधात्मक अभियान बिना किसी निर्णायक अथवा इच्छित परिणाम तक पहुंचे ही समाप्त हो गया। पर, अपने पीछे यह जो सवाल छोड़ गया है उस पर गंभीरतापूर्वक अब यह विचार करने की जरूरत है, आखिर- इस लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली में सत्ता प्रतिष्ठानांे के प्रमुख पदों पर बैठे महानुभावों के गलत आचरणों को रोकने और उन्हें दंडित कराने के लिये कौन-से उपाय किये जायें कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कायम रह सकें? जाहिर है शांतिपूर्वक सामूहिक विरोध प्रदर्शन का अब सरकारों पर कोई असर होता दिखाई नहीं दे रहा है और हिंसात्मक रूख अपनाने या रास्ता जाम कर देने जैसे उपाय अपनाना लेखकों को अपनी स्वयं धारित प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं लगता। 
वैसे लेखकों को यह कटु अनुभव पहली बार ही हुआ है। इससे पहले दिल्ली की हिन्दी अकादमी में अशोक चक्रधर की ताजपोशी करने को लेकर और बाद में वरिष्ठ साहित्यकार ड्डष्ण बलदेव वैद को शलाका सम्मान से वंचित करने पर भी ऐसा ही विरोध प्रदर्शन हुआ था। उससे पहले केन्द्रीय साहित्य अकादमी में गोपीचंद नारंग के आने पर और बंगला साहित्य की लोकप्रिय लेखिका तसलीमा नसरीन के पश्चिमी बंगाल से दर-बदर किये जाने पर भी ऐसा ही हंगामा हुआ था। राजस्थान में तो पिछली भाजपा सरकार ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष पद पर एक ऐसी महिला को ला बैठाया था जो आयुर्वेद में डिग्री प्राप्त थी और अपने विषय में पुस्तकें लिखने के कारण लेखिका मान ली गई थी। उनका भी जमकर विरोध हुआ था, पर सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी थी। उम्मीद थी कि सरकार बदलने पर कोई उपयुक्त व्यक्ति इस पद पर बैठेगा लेकिन वर्तमान कांग्रेस सरकार अपना लगभग आधा कार्यकाल पूरा करने को है फिर भी राज्य की सभी अकादमियों के अध्यक्षों की कुर्सियां खाली पड़ी है। उसे शायद यह लग रहा है कि सचिव और संभागीय आयुक्त अर्थात् सरकारी कर्मचारी ही जब अकादमियों का काम चला रहे हैं तो फिर अध्यक्षों की नियुक्ति कर क्यों आलोचनाओं को न्यौता दिया जाये!
निश्चय ही यह स्थिति चिन्ताजनक है और लेखकों को अपनी हैसियत, अपने लेखन की उपयोगिता और अपने सरोकारों की विश्वसनीयता पर पनुर्विचार करने के लिये बाध्य करती है। दरबारी या राज्याश्रयी लेखन को यदि अपवाद मान लें तो हम पाते हैं कि हर युग में इसके तेवर सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रति तीखे-आलोचनात्मक रहे हैं। सत्ता चाहे नरेशों, महानरेशों की रही हो या लोकतांत्रिक शासन में तानाशाही स्वेच्छाचारी सरकारों की रही हो, लेखकों ने उनके कार्य व्यवहार को आम लोगों की भलाई के कांटों पर ही तोला है और तोल में कमी पाने पर उनकी निन्दा करने से वे कभी चूके नहीं हैं। इतना ही नहीं उन्होंने उन धार्मिक कर्मकांड़ों और सामाजिक रीति-रिवाजों पर भी जमकर प्रहार किये हैं जो लोगों की भलाई के रास्तों में अड़चन डालते हैं। तात्पर्य यह है कि प्रेमचन्द जब साहित्य को ऐसी मशाल बताते हैं जो लोगों को सही राह दिखाती है तो अनिवार्यतः लेखकों का यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वे भी बहुसंख्यक लोगों के न्याय पाने के लिये किये जाने वाले संघर्ष के पक्ष में हाथ उठाते दिखाई दें। विचारधारा चाहे कोई भी हो या न हो, लेखकीय संवेदना इस स्वतः निर्धारित भूमिका से कभी अलग नहीं होती।
लेकिन आज हालत यह है कि करोड़ों की सम्पत्ति के मालिक चंद लोग संसद और विधानसभाओं में न केवल पहुंचने लगे हैं बल्कि उन्होंने जन-प्रतिनिधि की हैसियत से अपने आपको दीन-हीन लोगों का सबसे बड़ा हित-चिंतक भी घोषित कर दिया है। साफ जाहिर है कि चंद पूंजीपतियों ने लोकतंत्र को ‘हाईजैक’ कर लिया है। उनके लिये सत्ता में बने रहना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता है, इसलिये वे हर उस व्यक्ति को लाभ पहुंचाने की कोशिश करते हैं जो उन्हें सत्ता में बने रहने में सहायक हो सकता है। उनके लिये बड़ा से बड़ा लेखक भी उस कार्यकर्ता से छोटा है जो उनके हर अच्छे-बुरे काम में आंख-कान मंूदकर उनके पक्ष में खड़ा होता है। वे जानते हैं कि लेखकों की आलोचना से उनके वोट बैंक पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। तभी तो एक-दो विधायकों की आपत्ति पर कृष्ण बलदेव वैद को सम्मान से वंचित कर दिया जाता है। बांग्ला देश से आये मुसलमानों के नाराज होने के डर से तस्लीमा को पश्चिम बंगाल से निकाल दिया जाता है और आधिकारिक विद्वानों की जगह गृह मंत्रालय के अधिकारी यह तय करने लगते हैं कि- कौन सी पुस्तक लोगों की आस्था पर चोट करने वाली है! लेखकों की आलोचना को निष्प्रभावी बनाने के लिये वे अपनी पार्टी की आलोचना स्वयं ही करवा लेते हैं। फिर विपक्ष और मुख्यधारा का मीडिया तो यह काम करता ही रहता है। ऐसे में उनकी सत्ता प्रतिरोधी भूमिका स्पष्टतः अपना अपेक्षित असर नहीं छोड़ पाती।
सच यह है कि लेखक जो कुछ लिखता है वह जब पाठक तक पहुंचता है तो उसे भावविह्नल किये बिना नहीं रहता। हर लेखक अपना एक पाठक-प्रशंसक समूह बनाता है। वह छोटा भी हो सकता है और बड़ा भी। उसमें अभिजात और अनभिजात दोनों तरह के लोग शामिल रह सकते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि- वह अपने पाठक समूह से रचना के माध्यम से मिलने के अतिरिक्त समय-समय पर व्यक्तिगत संपर्क भी कायम करना शुरू करे? और, वह जिन सभाओं, सम्मेलनों, गोष्ठियों, सेमिनारों में जाये इस शर्त के साथ जाये कि उनमें उसके पाठक भी शामिल हों? उदाहरण के लिये मैं एक ऐसे लेखक को जानता हूं जिन्हें आमंत्रित करने पर उनकी यह शर्त सामने आई कि उस सभा में कम से कम दस प्रतिशत ऐसे लोग भी शामिल होंगे जिन्होंने उनकी एक-दो पुस्तकें पढ़ी होंगी। ऐसी कुछ पत्र/पत्रिकाओं के उदाहरण भी मेरे सामने रहे हैं जिनमें संपादक, लेखक और पाठक आमने-सामने रहकर एक-दूसरे से जिरह करते हैं।
इसी तरह एक अखिल भारतीय साक्षरता एवं सतत शिक्षा समारोह में मुझे तमिलनाडू और केरल के कुछ ऐसे साहित्यकार भी मिले जो अपनी किताबें लेकर गांवों और कस्बों में नियमित जाते हैं और आम लोगों के बीच उनका पाठ करते हैं, अपने अनुभव उनके साथ शेयर करते हैं और उनके विचारों से स्वयं को लाभान्वित करते हैं। इस तरह के अभियानों के कई फायदे हो सकते हैं, जैसे- लेखक अपने लेखन की कमियों, अनुभवों की प्रामाणिकता और विचारों की प्रासंगिकता का आकलन कर सकता है। वह अपनी अगली रचना के लिये कच्चा माल प्राप्त कर सकता है। उसके सामने वह अनजाना, अनदेखा पाठक नहीं रहता जिसकी पृष्ठभूमि व मानसिकता की वह कल्पना कर लेता है या सैकिण्ड हैन्ड जानकारी के बलबूते पर उसकी छवि गढ़ लेता है। जाने-पहचाने पाठक समूह के लिये लिखने को जब वह प्रवृत्त होगा तो उसके सामने न केवल पाठकों की इच्छा अनिच्छायें बल्कि उनकी समस्यायें भी स्पष्ट रहेंगी और वह उन्हें उनकी स्तरानुरूप भाषा में अपनी बात कह सकेगा। पाठकांे में भी अपनी पैठ गहरी कर लेखक न केवल उन्हें अपना प्रशंसक ही बना लेगा बल्कि उन्हें अपने आंदोलनों में भागीदार बनने के लिये कह भी सकेगा। 
अन्यथा उसका यह कहना कि विभूति नारायण राय का बयान न केवल लेखिकाओं को बल्कि सारी नारी जाति को अपमानित करने वाला है - कोई मायने नहीं रखता। क्योेंकि यदि वह सही होता तो उसके विरोध में इन विरोध करने वाले लेखक व लेखिकाओं के साथ कम से कम कुछ पढ़ी लिखी आम औरतें या जन प्रतिनिधित्व करने का दावा करने वाली सारी महिला सांसद तो खड़ी होती?

- सुरेश पंडित

383, स्कीम नं. 2,
लाजपत नगर, अलवर (राज.)
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उदयपुर में साम्प्रदायिक दंगे: राजस्थान पुलिस ने गुजरात दोहराया !

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की राजस्थान के उदयपुर जिले के सारड़ा नामक कस्बे में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की जांच रपट मेरे सामने है। यह हिंसा एक मीणा आदिवासी की हत्या के बाद भड़की। यह हत्या शुद्धतः आपराधिक थी। पीयूसीएल के दल में वरिष्ठ अधिवक्ता रमेश नंदवाना सहित विनीता श्रीवास्वत, अरूण व्यास, श्यामलाल डोगरा, श्रीराम आर्य, हेमलता, राजेश सिंह व रशीद शामिल थे। इस कस्बे में कुछ वर्ष पहले भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी। इस रपट के अनुसार, 2 जुलाई 2010 को शहजाद खान और उसके दो साथियों ने मोहन मीणा का कत्ल कर दिया। मोहन मीणा अवैध शराब का ध्ंाधा करता था और शराब पीने के बाद हुए झगड़े में उसका खून हो गया। इसके बाद, तीन दिनों तक (3 से 5 जुलाई) आदिवासियों ने योजनाब( तरीके से मुसलमानों की दुकानों में जमकर आगजनी की। जिन मुसलमानों की दुकानें जलाई गईं उनका हत्या से कोई लेना-देना नहीं था। फिर, 8 जुलाई को निकटवर्ती बोरीपाल के भाजपा नेता अमृतलाल मीणा और उनके साथियों ने घोषणा की कि मुस्लिम परिवारों का नाश करना उनका ‘प्राथमिक लक्ष्य’ है।
क्षेत्र के एसडीएम एवं पुलिस उप अधीक्षक ने दोनों पक्षों की बैठक बुलाई और समस्या का हल निकालने की पेशकश की। बैठक में आदिवासयिों के प्रतिनिधियों, जो सभी बजरंग दल के सदस्य थे, ने कहा कि वे मुस्लिम परिवारों का नाश करने का अपना इरादा तभी त्यागेंगे जब स्थानीय मुसलमान यह घोषणा करें कि वे मोहनलाल मीणा की हत्या में शामिल तीनों आरोपियों का पूर्णतः बहिष्कार करेंगे और इस आशय की सूचना अखबारों में छपवाई जाएगी। यद्यपि इस मांग की कोई कानूनी वैधता नहीं थी और आरोपियों पर कानून के अनुसार मुकदमा चलाया जाना चाहिए था। परंतु शांति बनाए रखने की खातिर, स्थानीय मुसलमानों ने इस मांग को स्वीकार भी कर लिया और तीनों आरोपियों को बिरादरी बाहर करने की घोषणा भी कर दी गई। इस बारे में सारड़ा के तहसीलदार को आधिकारिक रूप से सूचित भी किया गया और उदयपुर से प्रकाशित ‘दैनिक भास्कर’ मंे यह खबर भी छपवाई गई। पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार- लेकिन,  हिन्दुत्ववादी संगठनों के बहकावे में आकर आदिवासियों ने अपना वायदा नहीं निभाया और 18 जुलाई को कस्बे में बड़े पैमाने पर ऐसे पर्चे बांटे गए जिनमें कहा गया था कि आदिवासी ‘मुस्लिम परिवारों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।’ 
पीयूसीएल ने ऐसे सुबूत इकट्ठे किए हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि 18 से 24 जुलाई के बीच, विभिन्न संगठनों द्वारा क्षेत्र के आदिवासियों को हथियार बांटे गए। रपट के अनुसार पाल सारड़ा, पालसाईपुर सहित कई अन्य गांवों में सेवानिवृत्त शिक्षक धनराज मीणा और पंचायत के उप सचिव कालूशंकर मीणा ने हथियार बांटे। सारड़ा के मुसलमानों को जब इस घटनाक्रम का पता लगा तो उन्होंने उच्चाधिकारियों और स्थानीय नेताओं को इसकी सूचना दी और उनसे अनुरोध किया कि कस्बे में सुरक्षा के कड़े इंतजामात किए जाएं। वैसे भी, जिला प्रशासन और पुलिस को हथियार व पर्चे बांटे जाने की जानकारी रही होगी। इसके बाद 25 जुलाई को अपरान्ह लगभग चार बजे बड़ी संख्या में आदिवासी एक होस्टल के नजदीक इकट्ठा हुए और भीड़ के रूप में  मुसलमानों की दुकानों और मकानों पर हमले करने लगे। इनमंे से एक मकान सेवानिवृत्त प्राचार्य अहमद हुसैन का था, जिन्हें पत्थरबाजी में गंभीर चोटें भी आईं। ऐसी अफवाह फैलाई गई कि एक मुस्लिम ने आदिवासियों पर गोली चलाई है परंतु बाद में पुलिस ने इस अफवाह को सही नहीं पाया।
यद्यपि आदिवासी ढोल-ढमाके बजाते हुए इकट्ठा होकर अपने साथियों को मुसलमानों पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे परंतु प्रशासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। आदिवासी, मुस्लिम मोहल्लों पर हमले करते रहे। मुसलमानों की ‘सुरक्षा’ के लिए पुलिस उन्हें थाने ले आई। मौका पाकर आदिवासियों ने खाली घरों को जमकर लूटा और उनमें आग लगा दी। ऐसे घरों की संख्या लगभग 70 बताई जाती है। इस घटनाक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि जिला प्रशासन ने इस हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। जिस समय मुसलमानों के घर जलाए जा रहे थे उस समय सारड़ा में जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक व अन्य अधिकारी मौजूद थे। लेकिन जिले के ये शीर्ष अधिकारी भी आदिवासियों की भीड़ द्वारा मुसलमानों के घरों को लूटे और जलाए जाने के मूकदर्शक बने रहे। इससे भी अधिक चाैंकाने वाली बात यह है कि इन अधिकारियों के खिलाफ आज तक राज्य के मुख्यमंत्री या गृहमंत्री द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है। मेरे निवेदन पर मुसलमानों का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल, प्रोफेसर मोहम्मद हसन व प्रोफेसर सलीम इंजीनियर के नेतृत्व मंे दो दंगा पीड़ितों के साथ मुख्यमंत्री से मिला और उनसे अनुरोध किया कि वे जिले के उन उच्चाधिकारियों को निलंबित करें जिनकी आंखों के सामने मुसलमानों के 70 घर लूटे और जलाए गए। मुख्यमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल से कहा कि वे संभागायुक्त से मामले की जांच करवांएगे। 
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। मुसलमानों ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को अपना पूरा समर्थन दिया था क्योंकि उन्होंने राज्य में भाजपा शासन के दौरान हुए भगवाकरण को देखा और भुगता था। गुजरात के दंगों के प्रकाश में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार, साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक तैयार कर रही है ताकि भविष्य में गुजरात जैसी घटनाएं न हों। सबसे दुःख की बात यह है कि जब मुसलमानों के घर जलाए और लूटे जा रहे थे तब वहां जिले के अधिकारियों के अतिरिक्त एक कांग्रेस विधायक भी मौजूद थे। ये विधायक भी मीणा आदिवासी हैं। क्या कांग्रेस सरकार वाकई साम्प्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने की इच्छुक है? उदयपुर के जिलाधिकारियों ने जिस तरह का व्यवहार किया, उससे कई प्रश्न उभरते हैं। क्या मुख्यमंत्री को इस गंभीर घटना की जानकारी नहीं थी? अगर नहीं, तो संबंधित अधिकारियों ने उन्हें अंधेरे में क्यों रखा और यदि हां, तो मुख्यमंत्री ने दोषी अधिकारियों के विरूद्ध त्वरित और कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं की? यद्यपि यह घटना एक छोटे से कस्बे में हुई थी, लेकिन इससे उसकी गंभीरता कम नहीं हो जाती। कहा जाता है कि गुजरात में पुलिस ने दंगाईयों का साथ दिया था। तो क्या कांग्रेेस-शासित राजस्थान की पुलिस का व्यवहार, गुजरात से कुछ अलग था? 
यह तर्क दिया जा सकता है कि गुजरात में जो कुछ हुआ उसे सरकार का अपरोक्ष समर्थन हासिल था। लेकिन राजस्थान के मामले में शायद ऐसा नहीं रहा होगा। परंतु, क्या हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मुख्यमंत्री को अधिक सतर्क रहना था और साम्प्रदायिक सोच वाले अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी थी? मैं जोर देकर यह बात कहना चाहता हूं कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी तब तक किसी राज्य में कभी कोई दंगा या बड़ी साम्प्रदायिक घटना नहीं हो सकती। बिहार और पश्चिम बंगाल इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। मुस्लिम और यादव वोटों के सहारे सत्ता में आने के बाद, लालू यादव ने एक बहुत आसान से तरीके से राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पा लिया था। उन्होंने यह साफ कर दिया कि अगर चौबीस घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को तुरंत निलंबित कर दिया जावेगा। उन्होंने यादवों को भी चेतावनी दी कि अगर वे सत्ता का मजा लूटते रहना चाहते हैं तो साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने या उसमें भाग लेने से बाज आएं। 
लालू यादव के 15 वर्षीय शासनकाल में बिहार में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। चूंकि नीतीश कुमार, मुसलमानों को लालू शिविर से अपने शिविर में लाना चाहते हैं इसलिए उन्होंने भी अब तक बिहार को दंगामुक्त राज्य बना रखा है। यही नहीं, मुसलमानांे को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नीतीश कुमार ने यह सुनिश्चित किया कि भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा मिले। लालू ने इस काम में कोई रूचि इसलिए नहीं ली थी क्योंकि अधिकांश आरोपी यादव थे। इसी तरह, एक समय पश्चिम बंगाल, साम्प्रदायिक हिंसा का बड़ा केन्द्र था परंतु वाममोर्चा सरकार ने सत्ता में आते ही एक सर्कुलर जारी किया कि जो पुलिस अधिकारी 24 घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में विफल रहते हैं उन्हें स्वयं को निलंबित समझना चाहिए। पश्चिम बंगाल में वाममोर्चा तीस वर्ष से भी अधिक समय से शासन कर रहा है परंतु इस अवधि में राज्य में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। इसका एकमात्र अपवाद था मुर्शिदाबाद में हुई साम्प्रदायिक हिंसा, जिसपर बहुत जल्दी नियंत्रण पा लिया गया था।
अतः यह साफ है कि साम्प्रदायिक दंगों के मामले में सरकार की इच्छाशक्ति का बहुत महत्व होता है। यह खेदजनक है कि उदयपुर जिले के उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई है जिनकी उपस्थिति में मुसलमानों के घर लूटे और जलाए गए। राजस्थान में दस वर्ष तक भाजपा का शासन रहा और इस दौरान नौकरशाही और पुलिस का जम कर साम्प्रदायिकीकरण कर दिया गया। भाजपा शासन में संघ की पृष्ठभूमि और मानसिकता वाले राज्य पुलिस व प्रशासनिक सेवाओं के अनेक अधिकारियों को आईएएस व आईपीएस में पदोन्नत किया गया। इससे राज्य की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई व आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि जैसे संगठनों की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई। जैसा कि हम जानते हैं पिछले कुछ दशकों से आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में बहुत सक्रियता से काम कर रहा है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं कि मुसलमानों के घरों में लूटपाट और आगजनी करने वाले आदिवासी, हिन्दुत्व संगठनों के सदस्य ही थे। 
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की छवि एक धर्मनिरपेक्ष नेता की है और वे निश्चित रूप से इन सभी तथ्यों से  अवगत होंगे। इसलिए उन्हें जिला स्तर के अधिकारियों को स्पष्ट शब्दों में यह संदेश दे देना चाहिए कि अफसरशाही या पुलिस में साम्प्रदायिकता को कतई बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण राजस्थान में भाजपा के कई वर्षों के कुशासन के बाद कांग्रेस सत्ता में आई है और उसे राज्य प्रशासन को साम्प्रदायिक तत्वों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए तत्परता से कदम उठाने चाहिए। खेद का विषय है कि यह तत्परता कहीं दिखाई नहीं दे रही है। मुझे बताया गया है कि जयपुर के मुसलमानों ने यह निर्णय लिया है कि सारड़ा तहसील में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के दोषी अधिकारियों के खिलाफ यदि कड़ी कार्यवाही नहीं की गई तो वे मुख्यमंत्री द्वारा आयोजित किए जाने वाले रोजा अफ्तार का बहिष्कार करेंगे। बल्कि उन्होंने तो किसी भी कांग्रेस नेता के रोजा अफ्तार में शामिल न होने का भी निर्णय लिया है। यह बिल्कुल सही निर्णय है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सद्भाव व शांति बनाए रखने में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना चाहिए कि वह दोषी अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करे। 
मुख्यमंत्री को यह सुनिश्चित करना होगा कि कम से कम साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनशील जिलों से साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अधिकारियों को हटाया जाए और उनके स्थान पर धर्मनिरपेक्ष व उदार सोच वाले ऐसे अधिकारियों की पदस्थापना की जाए जो साम्प्रदायिक सद्भाव और शांति को बढ़ावा दें। अगर उदयपुर के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को तुरंत निलंबित कर दिया जाता है तो नौकरशाही तक सही संदेश जाएगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो फिरकापरस्त नौकरशाहों की हिम्मत बढेगी और राजस्थान को दूसरा गुजरात बनने में देर नहीं लगेगी। आखिर, भाजपा तो यही चाहती है और इसीलिये उसने अपने दस वर्ष के शासन में साम्प्रदायिकता का मूलभूत ढांचा भी खड़ा कर दिया है। किन्तु, अभी भी देर नहीं हुई है। अगर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री गहलोत अपनी छवि को बेदाग बनाए रखना चाहते हैं और कांग्रेस को एक धर्मनिरपेक्ष दल के रूप मंे प्रस्तुत करना चाहते हैं तो उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। मैं चालीस साल से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रहा हूं और मेरा यह अनुभव है कि धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस की सैंद्धांतिक प्रतिबद्धता है। परंतु वह अक्सर कार्यरूप में परिणित नहीं होती। जबकि, इसके विपरीत जनता दल, आरजेडी व अन्य मंडल पार्टियां, साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलती भी हैं और उससे लड़ती भी हैं। 
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
- डॉ. असगर अली इंजिनियर
- सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एण्ड सेक्युलरिज़्म, 
सिल्वर स्टार बिल्डिंग, फ्लैट नं. 602-603, छठां फ्लोर, 
सांताक्रुज (ईस्ट) रेलवे स्टेशन के पास, बेस्ट डिपो के पीछे, 
सांताक्रुज (ईस्ट), मुम्बई - 400 055

मालवीय नगर विधानसभा क्षेत्र के युकां अध्यक्ष निर्वाचित हुए ‘‘विचार व्यास’’

जयपुर। कांग्रेस संगठन की रीढ़ की हड्डी कहे जाने वाले युवक कांग्रेस के देश भर में चल रहे चुनाव के दौर में जयपुर के मालवीय नगर विधानसभा क्षेत्र के अध्यक्ष पद पर विचार व्यास निर्वाचित घोषित हुए। विचार व्यास के इस निर्वाचन पर क्षेत्रवासियों विशेषकर युवाओं ने प्रसन्नता व्यक्त कर इनको बधाईयां दी और इनकी उत्तरोत्तर सफलतम प्रगति की कामनायें की। अपनी जीत को क्षेत्रवासियों की जीत बताते हुए विचार व्यास ने कहा कि देश में कोई भी चीज सही समय पर नहीं होती। जिसकी वजह से हर आमजन को परेशानी उठानी पड़ती है। विचार व्यास ने राजनैतिक कार्यक्षेत्र में निम्न स्तर की होने वाली राजनीति को बंद किये जाने की बात करते हुए कहा कि देश को ‘यंग लीडरशिप’ की जरूरत है। हालांकि अभी राजनीति में बहुत से यंग लीडर है लेकिन देश से वंशवाद और भ्रष्ट सिस्टम को खत्म करने के साफ सोच व छवि वाले यंग लीडरर्स की जरूरत है। 
विचार व्यास ने अपने राजनैतिक जीवन के बारे में बताते हुए कहा कि उन्होंने जीवन में काफी समस्याओं का सामना किया है जो आमजन की समस्याओं के ही समान रही है लेकिन वे लगातार संघर्षरत रहकर समस्याओं के निराकरण में जुटे रहे। यही कारण है कि इस चुनाव में मतदाताओं ने विश्वास कर मुझे सफलता दिलाई। अब उनका पूरा ध्यान राजनीति पर ही है। उन्होंने बताया कि आज लोगों के बीच में राजनेताओं के प्रति नकारात्मक सोच बनी हुई है कि वो सिर्फ वोट लेने के लिए ही जनता से वादे करते है, वो इस सोच को बदलना चाहते हैं। युवक कांग्रेस को नवजीवन के साथ नई दिशा देने वाले युवा नेता राहुल गांधी से प्रभावित विचार व्यास का कहना है कि राहुल गांधी ने जिस तरह से राजनीति में आकर अपने परिवार की परम्परा को सार्थकता प्रदान की है उससे ना केवल युवा वर्ग में बल्कि वरिष्ठ आमजन में भी कांग्रेस के प्रति विश्वास का भाव बनता जा रहा है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अपना आदर्श मानने विचार व्यास कहते हैं कि वह कम बोलने और अधिक काम करने में विश्वास करते हैं और यही उनकी सफलता का मूलमंत्र है।

‘हिन्दी भाषा भूषण’ से सम्मानित हुए ललित शर्मा

झालावाड़। श्रीनाथजी की नगरी नाथद्वारा साहित्य मंडल (जिला चित्तौड़गढ़) की ओर से हिन्दी दिवस पर आयोजित समारोह में झालावाड़ के इतिहासविद् ललित शर्मा को हिन्दी सेवा सम्मान व हिन्दी भाषा भूषण की उपाधि से अलंकृत कर सम्मानित किया गया। ललित शर्मा के हिन्दी भाषा में विशिष्ट स्तरीय लेखन व पुस्तक प्रकाशन के लिए मंडल की ओर से उनको यह सम्मान प्रदान किया।
इस सम्मान समारोह के लिए मंडल द्वारा आमंत्रित किये गये देश के 12 राज्यों के 27 साहित्यकारों, इतिहासविद्वों में राजस्थान राज्य के आमंत्रित चार साहित्यकारों में एक झालावाड़ के श्री ललित शर्मा शामिल है। मंडल के सभागार में आयोजित हुए इस गरिमामयी समारोह में प्रमुख अतिथिगण श्रीनाथजी मंदिर के बड़े मुखिया पंडित नरहरि ठाकर, साहित्य मंडल के प्रधानमंत्री भगवती प्रसाद देवपुरा, मंदिर मंडल के निष्पादन अधिकारी अजय कुमार एवं नाथद्वारा के उप जिला कलेक्टर गौरव बजाज ने श्री ललित शर्मा को श्रीनाथजी मंदिर का परम्परागत ओपरना, शॉल ओढ़ाकर एवं विश्वप्रभु श्रीनाथजी की हस्तनिर्मित स्वर्णिम श्रृंगार छवि व अधिकृत सम्मान उपाधि पत्र भेंट कर सम्मानित किया। 
इस प्राप्त हुए गरिमामयी सम्मान के लिए झालावाड़ अंचल के साहित्यकारों, इतिहासविद्वों व शुभेच्छुओं आदि ने खुशी जाहिर कर श्री शर्मा को बधाईयां दी और उनके उज्जवलमयी भविष्य की कामना की। ज्ञातव्य है कि ललित शर्मा इन दिनों दलित समाज के गौरवमयी महान् संतों पर भी शोधकार्य लेखन कर रहे हैं। शर्मा ने विगत वर्षो में हिन्दी साहित्य, सांस्कृतिक, इतिहास की राष्ट्र स्तरीय पुस्तकाओं का लेखन किया है जिनमें दुर्ग गागरोन, संत पीपाजी, झालावाड़ की सांस्कृतिक धरोहर, हिन्दी गीतकार पं. भरत व्यास, नृत्यकार उदयशंकर, सितारवादक पं. रविशंकर, पुष्टि मार्गीय द्वारकाधीश देवालय, अर्द्धनारीश्वर व चामुण्डा नवग्रह, मूर्तिकला आदि पर लिखे शोध लेख शामिल है। 
‘‘समाचार सफ़र’’ परिवार की ओर से इतिहासविद्व व दलित संतों पर शोधकार्य करने वाले श्री ललित शर्मा को इस प्राप्त हुए सम्मान के लिए हार्दिक बधाई और इनके उत्तरोत्तर प्रगति की मंगलकामनायें।